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मौन अधर से मन की बातें कह पाओ तो प्रीत करो / रिंकी सिंह 'साहिबा'

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मौन अधर से मन की बातें कह पाओ तो प्रीत करो,
एक हृदय में सौ सौ पीड़ा सह पाओ तो प्रीत करो।

तन की वीना पर है सज्जित स्वर जो अपनी सांसों का,
दग्ध हृदय का कंपन है ये, फेरा है उच्छ्वासों का,
भावों की अविरल सरिता में बह पाओ तो प्रीत करो।
एक हृदय में सौ सौ पीड़ा सह पाओ तो प्रीत करो।

दुनिया है इक भ्रम का घेरा, इसमे ठौर ठिकाना क्या,
किसने समझा इस घेरे में, आना क्या है जाना क्या,
ख़ुद में मुझ सा मुझ में ख़ुद सा रह पाओ तो प्रीत करो।
एक हृदय में सौ सौ पीड़ा सह पाओ तो प्रीत करो।

फूलों के भी रंग सजीले, मन को छलने लगते हैं,
स्वप्नों की गलियों में व्याकुल प्राण सुलगने लगते हैं,
पग पग पर है आग का दरिया दह पाओ तो प्रीति करो,
एक हृदय में सौ सौ पीड़ा सह पाओ तो प्रीत करो।

कर्तव्यों के बीहड़ पथ का रुख समझो अनुमान करो,
शब्दभेद करने वाला फिर शर कोई संधान करो,
धुरा समय के रथ की यदि तुम गह पाओ तो प्रीति करो,
एक हृदय में सौ सौ पीड़ा सह पाओ तो प्रीत करो।