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मौन गलियाँ हैं बुलातीं / प्रेमलता त्रिपाठी
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मौन गलियाँ हैं बुलातीं लौट जाते क्यों।
सुन रही पदचाप उनको यूँ लुभाते क्यों।
शब्द सागर ले हिलोरे, भाव रजनी में,
हो रहा उन्मत्त मन भी, हम छिपाते क्यों।
अर्थ के साँकल खुलें हैं, आहटें आतीं,
हैं अधर जब गुनगुनाते, तुम सताते क्यों।
ग्रंथ हैं अहसास मेरे, गुनगुनाते जब,
नींद पलकों से चुराकर, तुम जगाते क्यों।
प्रीत जागी है हृदय में, अनकही बातें,
खुल गये जो मर्म मन के, तुम दबाते क्यों।
दिन सुहाने फिर मिलेंगे, है यही आशा,
प्रेम अंकुर है दबाया, तुम भुलाते क्यों।