मौन रह जाती है / निवेदिता झा
क कोने में
ख खुखडी की पंक्तियों पर
ग गाँव के सामने ही बढती
घ घर के आँगन में जब वो
चाँद को निहारती
छोटी-सी छत पर
जल ही जल
झरझर बहते अश्रु बन जाते हैं कई बार
टिकट्काती समय की घडी देख
ठुनकती वो
डोर लिए प्रेम के
ढल जाती है शाम को अपनी पहचान बताने
अणु से मिलती जुलती
तुनकमिजाज नहीं संयमित सी
थककर निढाल अपने बच्चों को पीठ पर बाँधे
दर्पण में सांवली काया निहारती
धरती-सी दृढ
निर्मल जल जैसे स्वर्णरेखा बहती हो
प्रेम लिखती
फूल उगाती
बाबुल के घर से निकलती
भोर से पहले
मन मंदिर के देवता जगाती
यायावरी करती सुदूर जाती है
रोकता नहीं कोई उसे
ले जाने
वापिस
शापित-सा भाग्य
षट भुजाकार चाक पर
संसार की और-सी स्त्रियों की तरह
हंसते हुए
क्षमा करते
त्रासदी सहते
ज्ञान बिना दिये लिये विदा हो जाती है
आदिवासी स्त्रियाँ हमारी तुम्हारी तरह ही है
वो व्यजंन से ज़िन्दगी पढती है
और स्वर पर मौन रह जाती है
(ये कविता व्यजंन से शुरू होती है)