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मौन होने लगे स्वर अमर प्यार के / पीयूष शर्मा
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हो गए तुम पृथक जब हृदय से प्रिये
मौन होने लगे स्वर अमर प्यार के।
तन अपावन हुआ आँख अकुला गई
मौत के द्वार पर ज़िंदगी आ गई
दीप बुझने लगे प्रीति के प्यार के
हर दिशा शोक की कालिमा छा गई
तुम किनारे खड़े मुस्कुराते रहे
संग मैं बह गया, दर्द की धार के।
पीर के ताप से तप रहा तन-बदन
शूल से सज गया चाहतों का भवन
प्रेम की कामना, कामना रह गई
हो न पाया कभी दो दिलों का मिलन
व्यर्थ होने लगे अर्थ अधिकार के
जब चले छोड़ तुम प्रेम स्वीकार के।
बाँसुरी की सदा बेसुरी लग रही
रात भर रक्त की बूँद दृग से बही
इस प्रणय की सजा प्राण! ऐसी मिली
भूल ही दिल गया क्या गलत क्या सही
सांझ बहकी मिली, भोर रोती मिली
स्वप्न सब मर गए प्रेम साकार के।