भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मौसमे-गुलज़ारे-हस्ती इन दिनों क्या है न पूछ / नासिर काज़मी
Kavita Kosh से
मौसमे-गुलज़ारे-हस्ती इन दिनों क्या है न पूछ
तूने जो देखा सुना क्या मैंने देखा है न पूछ
हाथ ज़ख़्मी हैं तो पलकों से गुले-मंज़र उठा
फूल तेरे हैं न मेरे, बाग़ किसका है न पूछ
रात अंधेरी है तो अपने ध्यान की मिशअल जला
क़ाफ़िले वालों में किसको किसकी परवा है न पूछ
जो तेरा मरहम मिला उसको न थी अपनी ख़बर
शहर में तेरा पता किस किससे पूछा है न पूछ