भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मौसमों की मार / मलय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मौसमों की मार का
सामना करते और
भूख और आग से
झुलसते लोगों को
देखता हूँ
तो थाली में
हाथ से कौर गिर जाता है
चावल के पके हुए
अर्थवान दाने
चीख़ कर बिखरते हैं

गर्मी में
धूप के उफ़ान पर
खाली घड़े
लू की लपट से भरे हैं
प्यास दहकती है
भरी दोपहरी में
ज़िन्दगियाँ
सूखे पत्तों-सी
भटकती
रहती हैं

नदियों की बाढ़ में
खाली घड़े उतराकर
बहते हैं
डूबते हैं
डूबते अपनों के आसपास
थरथराती यात्रा की
कुँडली से घिरे हुए

ठंड से अकड़कर
बर्फ़ की चट्टानें होकर भी
लोगों के दिल
धड़कते रहते हैं
छाती से टकराती
चोटों से बचकर

इनके दिनों में भी
बहुत अंधेरा है
उजेला है ।
पर आदेश लेकर
काम करता है

चतुर चालाकियों से चुस्त
वाचालों का खेल भी
जारी है
अपनी हवस में नहाकर
करोड़ों में से
मात्र दो-चार को
करोड़पति बनने का
मौक़ा दे देते हैं
प्रश्न-प्रपंच को
खोलने के बजाय
उसका ताला लगवाते हैं
इस मौज में, बहुत फुरसत से
मुस्कराकर
अरबपति
कहने से कतराकर भी
अनकही से बचने के
प्रयत्न में पूरे सधे हुए ।