भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मौसम ने करवट ली फिर बगिया में फूल खिला / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मौसम में करवट ली फिर बगिया में फूल खिला।
बहुत दिनों के बाद राह में मन का मीत मिला॥

घनी छांव में वट के भी
हमको लगती थी धूप,
शीतल सेज बनी अंगारा
था कैसा विद्रूप?

भरी दोपहर आज अचानक चाँद कहाँ निकला।
बहुत दिनों के बाद राह में मन का मीत मिला॥

प्यार प्रीति की बातें जैसे
हों बालू की भीत,
मन का नाता जान न पाये
यह कैसी जग रीत?

मुरझाये मन के सरोज को जैसे सूर्य मिला।
बहुत दिनों के बाद राह में मन का मीत मिला॥

नागिन बनी निराशा डँसती
रहती थी दिन रात,
जिसमें महक रातरानी की
है वह सुखद प्रभात।

आशा कि दृढ़ चट्टानों को सकता कौन हिला।
बहुत दिनों के बाद राह में मन का मीत मिला॥

बिन मौसम होती ही रहती
झीनी-सी बरसात,
यादें हमें जगाये रखतीं
सारी सारी रात।

हर पल का हिसाब करने रितु-पुरुष नहीं निकला।
बहुत दिनों के बाद राह में मन का मीत मिला॥