भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मौसम पे दोष डालकर निर्दोष हो गये / उर्मिल सत्यभूषण
Kavita Kosh से
मौसम पे दोष डालकर निर्दोष हो गये
कश्ती के कर्णधार जब मदहोश हो गये
सत्ता का ताज पहनकर डूबे नशे में यूं
ललकारते थे जो उसे, खामोश हो गये
सिर धुन रही है बेबसी, लाचारियाँ यहाँ
गूंगे हमारे आज ये आक्रोश हो गये
गो मात खा गये हैं सियासत में हम मगर
अवगुण हमारे गुण हुये, गुण दोष हो गये
होने लगी है जब से अदब में भी साजिशें
संवेदना के खाली सारे कोष हो गये
अरमान थे कि उनके मुखौटे उतार दे
दहशत, कि उनके सामने गुम होश हो गये
जंगल बनी है बस्तियां अब आदमी कहाँ
कुछ शेर हैं कुछ लोमड़ी, खरगोश हो गये
खलती हैं उर्मिल को बहुत ये खेमेबाजियाँ
सब अपनी जय-जयकर के उद्घोष हो गये।