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मौसम से बातें करती खिड़की सा लगता है / अशोक रावत

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मौसम से बातें करती खिड़की सा लगता है,
उसका होना फूलों पर तितली सा लगता है.

अंधियारा जब घिर आता है तब उसका होना,
घर को जगमग करती एक ढिबरी सा लगता है,

रंग चटख जाते हैं उसकी झिलमिल आभा से,
उसकी बोली का लहजा मिसरी सा लगता है.

उसके मन की निर्मलता का कोई छोर नहीं,
उसकी छवि का भोलापन शबरी सा लगता है.

मन को शीतल कर देनेवाला है उसका रूप,
उसका होना मरुथल में बदली सा लगता है.

जीवन से आप्लावित उसका ममतामय आभास,
अविरत लय में घूम रही पृथ्वी सा लगता है.

दस बजने तक व्यस्त पुरानी दिल्ली जैसा शोर,
फिर उसका व्यक्तित्व नई दिल्ली सा लगता है.