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म्हनै ठाह नीं जीसा / राजेन्द्र जोशी

Kavita Kosh से
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म्हनै ठाह नीं है
उण री टैम
कुण खोलै
पण जिकी बगत
म्हैं उठूं
खुलो लाधै
मांयलो ताळो, जीसा!

म्हैं नीं जावूं
रोज-रोज
सूरज सूं पैली
कदैई-कदैई आपरी प्रीत
निभावण री कोसीस करूं
भोर री घुमाई री
बा टोपी
हाथ-मौजा
अर घूमण आळा जूता
अबै नीं दीखै
जिका पैरÓर जावता
सूरज सूं पैली
बै सिधायग्या
जीसा रै जायां पछै।
नूंवै घर मांय
आगै कानी
लगायो बाग अर बसंत में फूल
बागां मांय घर
अर फूलां रा गमला।

मिलायो म्हनै
आपरै भेळै पढ्योड़ा
भायलां सूं जीसा
मिळतो रैवूं
अर पढतो रैवूं
बांनै अर खुद नै
अबै नीं मिळै
म्हारै स्हैर रा लिखारा अर
लिखारा री किताबां देखण नै।

कोई पौरादार
उण किताबां नै
बाखळ मांय बोरियां में घालÓर
तिरपाल सूं ढकÓर
माचै हेठै मेल दी।

लिखारा रै जीव सूं
अळगी नीं हुवती
नीं देवता किणनै ई
नीं आंनै तक्षशिला-नालंदा
अर स्हैर री कॉलेज-स्कूल
अर किणनै ई पढबा।
लाडेसरां री बंट में नीं है
फकत ठाह नीं है उणां नै
किताबां रो मोल
बंटवारा मांय आवैला
जद तुलैला ताकड़ी मांय
आठ रिपिया किलो।

बूढा-बडेरां ज्यूं उदास
ताकड़ी चढती बेळा किताबां
कोई झपटैला गत्तो हटावता
उण माथै कचोळी खावण नै
भागी नीं है
नीं बण सकी
किणी री विरासत
नीं हुयो लाडेसरां रो बंटवारो
नीं संभाळी बोरियां
चट करगी उदाई—किताबां।