भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
म्हारै घर में / मनोज पुरोहित ‘अनंत’
Kavita Kosh से
					
										
					
					म्हारै घर में 
पक्की है ईंटां 
रिस्ता कोनीं
जका टूट जासी
पत्थर है, भाठा है
मंजियै रा 
बिसवास थोडी है 
जका डिग जासी !
चूनो है 
रंग-बिरंगो
ओळ्यूं कोनीं
जकी
मोळी पड़ जासी। 
जे कर है मजबूत
रिस्ता-विसवास 
लूंठी ओळ्यूं
ईंट, भाठा अर चूनै सूं 
तो पछै 
मिनख क्यूं नीं 
म्हारै घर में
बा सूं मजबूत।
	
	