भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
म्हारै पांती रा सुपना: तीन / राजू सारसर ‘राज’
Kavita Kosh से
आसावां रै अडाण नैं
दीवळां खायगी
आभै में उडणौं चावै ही
जमीं माथै आयगी।
म्हूं देखती थारी आंख्यां में
सुपना घणा-मोकळा
जणां थूं बीरै सारू
जोतकी नैं हाथ देखाळती
थारी आंख्यां चिलक बापरती
सुपना तो म्हारै सारू बी हावैला
थारी आंख्यां में
म्हारै पांती रा सुपना पण
कुण चोर लेयग्यौ
म्हनैं टाबरी नै कांई ठाह
थानैं तो पण ठाह होवैलो
थे तो मा हो?