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म्हारै रचाव रा पगलिया / संजय पुरोहित
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म्हारा रचाव रा पुहूप
घिर जावै
चारूं मेर
कांटा भरयोड़ै
मून सूं
आकळ-बाकळ आखर
करै है रूदाळी
मून पण
म्हैं उठाऊं
अरथां‘र विचारां री हंसूली
अर
बाढूं इण कांटा नै
अर सोधूं आणी हथैली
घाव तड़फीज्यौड़ा
केई सबदां री
सरक रैयी है सांस
म्हैं पुचकारूं करूं खेचळ
अर करूं सिणगार
सलीके सूं
क्यूं कै आखर हुय तो है
म्हारै सिरजण रो आंगणौ
अर उन आंगणे है म्हारै
रचाव रा पगलिया