भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
म्हारो मन / वासु आचार्य
Kavita Kosh से
ताळ तळाया
जंगल जंगल
हुवणौ चावै-म्हारो मन
सरणाटै री-गूँज गूँज मांय
चावै गूँजणौ
म्हारो मन
बाथ्यां भर भर
मिलणौ चावै
गूंगा पीळा धोरा संग
आ बौरटी
अर खैजड़ी
बणनौ चावै
म्हारो मन
देख चिडकली
पाळ ताळ री
चक चक करणौ चावै मन
नीं ठा जठै सूं-
क्यूं बठै सूं
ऊँचौ उडणौ चावै मन
धरती माथै
घणौ अमूजो
आभो बणनौ चावै मन-