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म्हारो सुपनो / नरेन्द्र व्यास
Kavita Kosh से
म्हूं तो
फगत तिरसो हूं
जायो मुरधर रो
सुपनों है
पाणी म्हारौ
जद ई
देखूं मुरधरा नै
पाणीं सूं
भरी होवण रो
लेंवती खरो सुपनों
आंख्यां सूं झरै
लगोलग म्हारै
झरणां पाणी रा।
इण धरा री
ओळयूं में
आंख्यां थारी
क्यूं नीं डबडबावै।