भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
म्हारौ आधार / संजय आचार्य वरुण
Kavita Kosh से
जमीं पर रैय’र
बात करणो नीं जाणूं म्हैं
म्हनै आछो लागै
हवा मै उडणौ।
इण खातर ही
कदे खिसकै कोनी
म्हारै पगां हेठली जमीं।
म्हैं ठोकर खाय’र
कदे नीं पड़यौ।
क्यूं के
हवा में भाठा नीं हुवै।
म्है म्हारै पगां ने
कष्ट नी देवूं
हवा चलावै म्हनै
हवा उड़वै मनै
इण खातर
थकणै अर थमणै री तो
बात ही कठै आवै।
म्हैं हवा में उडू, पण
फेर भी म्हैं
आधार हीन कोनी
क्यूं के
जिण हवा में म्है उडू
उण री जड़ा
समायोड़ी है
इण जमीं में घणी ऊंडी
ठेठ मांय।