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म्हारौ दान / अर्जुनदेव चारण
Kavita Kosh से
ओ थारौ माथौ
ऐ थारी आंखियां
ऐ थारा हाथ
क्यूं है
झुकियोड़ा
किणनै देवै है
थूं
म्हारौ दांन ?
धरती
अगन
हवा
अर उजास नै
आचमण सूं पैला
देख
आपरी हथाळियां
नेह रा हबोळां नै
अभिमंत्रित जळ में
ढळण सूं पैला
सोच
उठ
सांभ माथै नै
निजरां नै
देखण दै आभौ
हाथां में करार भर
इण दांन नै
कुदरत रै आंगै ढाळ
ज्यूं सूंपै सूरज
किरण
ज्यूं सूंपै रूंख
फळ
म्हारै हक में ई
थारै होवण री
तासीर छिपियोड़ी है