भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
म्हैं कठै ? / सांवर दइया
Kavita Kosh से
जियां बै चालता
म्हैं ई चालण लाग्यो
जियां बै बोलता
म्हैं ई बोलण लाग्यो
म्हैं मुळकता
मन नै आछा लागता जियां
म्हैं ई मुळकण लाग्यो
दुनिया नै दीसण लाग्यो
बांरो उणियारो
म्हारै मांय
एक दिन इयां ई
अचाणचक ठोकर लागी
संभळ’र देख्यो
बांरो तो रूं ई खांडो कोनी हुयो
बै तो आज ई ठावी ठौड़ है
पण म्हैं कठै ?