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म्हैं रेत रो पंखेरू / कन्हैया लाल भाटी
Kavita Kosh से
नीं जाणै क्यूं
आज लखावै ओ जग
म्हनै छोड़’र एकलो
सूयग्यो हुवै
गैरी नींद में।
होळै-होळै चालती पून
म्हारै काणै मन में लखावै
जाणै उजाड़ जंगळ में
किणी मिंदर री फुरकती हुवै-
धजा !
राजकंवरो रो नौलखो
झपटो मार’र लेयगी चिलख
चिलख जिकी थोड़ी’क ताळ पैली
फुरूकै री जंगळ मांय
किणी री धजा दांई
राजकुंवरी री आंख्यां मांय
उपज्यो मून
चणचक खिंडगी कहूंक
एक-एक कर’र झड़ग्यो
सगळो जंगळ
अर बणग्यो मरुथळ।
सूनयाड़ अर मौत बिचाळै
कित्तो’क आंतरो
छटपटीजूं एकलो बण’र
म्हें रेत रो पंखेरू।