भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
म्हैं लिखूंला कविता / संजय पुरोहित
Kavita Kosh से
कविता
निपजा नीं सकै धान
भर नीं सकै पेट
किणीं भूखै रो
बुझा नीं सकै
काळजै री आग
नीं बरसा सकै
धपटवां पाणीं
दे नीं सकै सांस
तो भळै क्यूं है कविता
क्यूं रचूं म्हैं कोई कविता।
आज म्हैं
भळै विचारयो
नीं लिखूंला कोई कविता
सबद पण भेळा होय
कर न्हाखी हड़ताल
म्हारै मगज रै आंगणै
म्हैं लुकणों चायो
भीतरलै गुम्भारियै
लारो नीं छोड़यो म्हारो
राता माता सबदां
बगनो होय म्हैं
झाळ में बोल्यो
परै दूर हटो
म्हारी निजरा सूं
अणमणां होय टुरग्या सबद
जांवता पण झलाग्या
म्हारै हाथां में कलम
बोल्या
थूं इयां कांईं करै।