भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यक़ीं एहसासो-उल्फ़त के खज़ाने याद रहते हैं / सूरज राय 'सूरज'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यक़ीं एहसासो-उल्फ़ त के खज़ाने याद रहते हैं।
वो इन्सां ढालने के कारखाने याद रहते हैं॥

नई कोशिश नई तरक़ीब करते हैं भुलाने की
मगर ये सच है कि घाव पुराने याद रहते हैं॥

कभी दादा कभी अंकल दुकांदारों को कह-कह के
बचा लेते थे जो दो-चार आने याद रहते हैं॥

गिले-शिक़वे ख़तो-ख़ुशबू मनाना रूठना ओफ़्फ़ो
वो सूखे होंठ वह गीले सिरहाने याद रहते हैं॥

नहीं दो पल भी रहते याद अब गायक भी गाने भी
मगर बर्मन दा ओ सहगल के गाने याद रहते हैं॥

बहुत भारी है इक-इक साँस कहते हैं ज़माने से
अगरचे साँस लेने के बहाने याद रहते हैं॥

दुकानें भूल जाते हैं दवाओं की मेरी बेटे
मगर हर एक दारु के ठिकाने याद रहते है॥

कोई लम्हा मुहब्बत का ज़ेह्म में रह नहीं पाता
करिश्मा है कि नफ़रत के ज़माने याद रहते हैं॥

तमाचा भूल जाते हैं पराए हाथ का लेकिन
समय गर्दिश का और अपनों के ताने याद रहते हैं।

भुला देता है जल्दी वक़्त भी अक्सर ज़हीनो को
मगर "सूरज" तेरे जैसे दीवाने याद रहते हैं॥