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यक़ीन करना जगह देना है ख़़ुद को भीतर / नीलोत्पल

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जब मैं ख़ुद से कहता हूँ
अब जीना मुहाल हो रहा है तो
होता यह है कि
कोई भी आसान दिखने वाला शब्द
किसी बाँस की तरह तनने लगता है
और हल्के झोंके से टूट जाता है

मुझे समझ नहीं आता
अब क्या करूं
क्या करूं कि हाथों की चमड़ियों में
उतर आए वह छुवन
जो भींग जाए किसी स्पर्श से
बारिश होती रहे
और सारी उम्र दौड़ता रहे यह एहसास

कभी कहता हूँ
क्यों ज़रूरी है यह तनाव सहूँ
कुछ छूट रहा है मुझसे
वह जो दबाव होने के बाद भी
जीना है सहना है
तब क्या है इस बेचैनी की वजह

क्यों दिखाई देता है नींद में भी
गुलमोहर का वह पेड़
जो किसी अपशकुन के चलते
कटवा दिया गया
उसकी छाया में तो
बीमारों को ठीक होते देखा था मैंने

क्यों बेगुनाहों की ख़ामोशी नाख़ून गाढ़ती
उभर आती है शरीर में रक्त की लकीरें
जिनके सूखते ही निकलता है
आह! यह ठंडी मौत और चुप्पी!!

क्यों सड़क से गुज़रते
आसान नहीं रहा चेहरों से आँखें मिलाना
हर किसी की आँख में गड्ढा है
दिखता है कि
हम छिपाने में लगे हैं अपने गुनहगार वजूद को
मैं सोचता हूँ
और यह लगातार होता है कि
ख़ुद पर यक़ीन करना
किसी ख़तरे से आगाह होना नहीं है
ऊँचे से छलांग लगाना
या दौड़कर ख़ामोशी छू आना
या वैसा ही कुछ जो हमें ठंडा करता है

यक़ीन करना
जगह देना है ख़ुद को भीतर

अब यक़ीन करने लगा हूँ
रेगिस्तान भी है हमारे अंदर
जिसकी गर्म हवाओं के बवंडर में
झुलसते हैं अहसास
नहीं जलता तो सिर्फ़ एक वह
जो बार-बार नहीं कहता
किंतु बहता है रक्त
ख़ामोशी के दरमियान
 
आह, जीना अब तंग हो रहा है...