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यकीं तुमको न हो शायद/ साँझ सुरमयी / रंजना वर्मा

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यकीं तुमको न हो चाहे
बुढापा यार है सच्चा॥
ये शैशव और बचपन ले कई तो मोड़ देता है ,
रहे कुछ रोज़ यौवन फिर अकेला छोड़ देता है।
पकड़ता है बुढापा हाथ जीवन भर निभाने को ,
हमेशा साथ है रहता
ये जीवन सार है सच्चा॥
है बचपन फेरता मुँह जब जवानी जोड़ लेती है,
जमीं पर पाँव रख कर आसमाँ से होड़ लेती है।
उबलता खून है रग में जमाना सर झुकाता है,
मगर खुद पर नहीं पाती
कभी अधिकार है सच्चा॥
कभी हैं बाल पकते दांत गिरते काँपता कर है,
तभी तो ज्ञात होता है कि अपना कौन या पर है।
तभी अनुभव सिखाता है कि माया मोह है दुनियाँ
चिता तक साथ जो चलता
उसी का प्यार है सच्चा॥
यही वो उम्र है सबको कन्हैया याद आता है,
सभी आ कर चले जाते वो सबके बाद आता है।
समझ आती है सबको साँवरे के प्यार की महिमा
उसी के नाम का ही प्राण
में संचार है सच्चा॥