भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यक्ष प्रश्न, आखिर क्यूँ / लता सिन्हा ‘ज्योतिर्मय’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आखिर क्यूँ...?
कोई तो कारण होगा
शिव ने सती का त्याग किया...!
आखिर कोई तो कारण होगा
सीता.... किसी के कहने मात्र से
गर्भवती होते हुए भी
त्यागी गई...
आखिर क्यँू...
कृष्ण ने राधा रानी के
प्रेम का बहिष्कार किया...?
आखिर कौन सी असमर्थता थी
जिसने कृष्ण के पाँव बांध दिए...?
जो अनेकानेक वैवाहिक बंधन में
बंधने से कहीं चूके नहीं
और राधा के आँसूओं से
उनका हृदय पिघला तक नहीं
वह कौन सी लीला थी
जिसमें प्रेम तो था
परन्तु पीड़ा की अनुभूति नहीं...?
क्या जग कल्याण में
राधा, सीता और सती का
कल्याण निहित नहीं..?
क्या देवियाँ...
इसलिए दोषयुक्त साबित हुईं
कि उन्हें देव तुल्य पुरुष से
न केवल प्रेम...
अपितु प्रेमाशक्ति थी
हृदय से मनमीत के लिए
भावयुक्त भक्ति थी...?
हे देव,.. मेरे महादेव...
कुछ तो बोलो...!
आज एक नारी
जो पुरुष प्रधान परिवेश में
बना दी गई है बेचारी...
वो आवाज उठा रही है...
उस विसंगतियों के विरुद्ध
जिसे देवाधिपतियों ने ही
दे दी थी मान्यता
वंचित कर दिया था उन्हें
उन अधिकारों से
जिसके अधीन होकर
वह कर सकती थी, आत्मरक्षा...
परन्तु यह कैसा उदाहरण
जो कर रहा नारी की
कोमल भावनाओं का हनन
हे स्वामी...
तुम अंतर्यामी होकर भी
न समझ पाए...!
परित्यक्ता के हृदय की वह पीड़ा
जिसे व्यक्त करने हेतु
कोई शब्द... अब तक...
सरस्वती ने भी नहीं रचे...
वह हृदय की वेदना...
बहिष्कृत आँखों के आँसू...
परित्यक्त अधरों की, अकुलाहट...
और विह्वल हृदय की, छटपटाहट
जिसे पढ़ पाना ही नहीं
व्यक्त कर पाना भी है, असंभव...
पर तुम कर सकते थे संभव...!
एक बार आकर
राधे को हृदय से लगाकर
जिस भरी सभा में
सीते का वरण किया
उसी सभागार में
जानकी का पक्षधर बनकर
अग्नि के फेरे संग
ऊंगली थामे, अग्नि परीक्षा देकर
सती को, पुनः बाम अंग आरुढ़ कर
पर तुम्हें हुआ पश्चाताप...
जानकी के... धरती में समाने के बाद
सती की स्व-आहुति और
राधा रानी के विलीन हो जाने के बाद
क्या महादेवी होना... स्वआहुति है...?
वह नारी स्वरूपा
क्या हर बार ही मृत्युदंश झेलेगी...?
शिव को... देवी के दोष बताने होंगे
परित्यक्त हृदय की पीड़ा समझनी होगी
यह दंश आखिर क्यूँ...??
सदैव... महादेवी अभिशापित क्यूँ...?
क्या दोषयुक्त ही है नारी...?
अगर राम पुरुषोत्तम थे
तो वास्तविकता का त्याग कर
सोने की सीता क्यूँ...?
धरती में समाते ही
फिर वह विलाप क्यूँ...?
जब त्याग ही दिया था... राधे को...
तो फिर हृदय में स्थान क्यूँ...?
जब स्थापित थी हृदय में
तो फिर यह परित्याग क्यूँ...?
आखिर क्यूँ...?
अगर शिव निष्ठुर थे तो
सती के शव को ढोया क्यूँ...?
अगर वह वैरागी, अनुरागी नहीं
तो फिर यह संवेदनाएँ क्यूँ...??
इस यक्ष प्रश्न के उत्तर
देने ही होंगे, उन देवों को...!
महादेव को... देवी की अंतः वेदना
समझनी ही होगी
उन्होंने अनेदेखी की है
सती की पीड़ा...
उन्हें अनुभव करना ही होगा...
हृदय का वह ताप
जिसमें सती झुलसती रही...!
परित्याग की वह वेदना...
जिसमें जानकी...
प्रतिपल व्याकुल होती रही...।
विरह में राधा...
विह्वल हो रोती रही...!
क्योंकि हर बार दोषी... देवी नहीं,
अबकी दोषी... स्वयं... महादेव हैं हाँ...
’’मेरे महादेव‘‘...