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यक-ब-यक ये हो गए अंदाज़ क्या / महेश चंद्र 'नक्श'

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यक-ब-यक ये हो गए अंदाज़ क्या
फिर सुनी दिल ने नही आवाज़ क्या

सो गया हँस कर फ़ना की गोद में
और करता भी कोई जाँ-बाज़ क्या

दर्द-ए-हसती फिर चमक उट्ठा है आज
हो गई ग़ाफ़िल वो चश्म-ए-नाज़ क्या

दैर ओ काबा ही पे क्या गौक़ूफ़ है
दिल नहीं है जलवा-गाह-ए-नाज़ क्या

काकुलें लहरा रही हैं दम-ब-दम
बज रहा है तीरगी का साज़ क्या

क़हक़हे अश्क ओ तबस्सुम और फ़ुगाँ
ज़िंदगी क्या ज़िंदगी का राज़ क्या

उन निगाहों में है फिर मेहर ओ वफ़ा
रूक सकेगी वक़्त की परवाज क्या

है फ़क़त बेदारी-ए-एहसास ‘नक्श’
दास्तान-ए-शौक़ का आग़ाज़ क्या