यज्ञ-कुण्ड जागो, आहुति लो / लाखन सिंह भदौरिया
संकल्पों के बनें खण्डहर, संस्कृतियों के राज महल में।
सूरज के घर घिरी अमावस, रश्मि-रथी तम के दल-दल में।
कालजयी धमकाये जाते, मर-पिपीलिका की फौजों से;
नीलकण्ठ कतराते दिखते, उठी हलाहल की मौजों से।
‘स्वर्गादपि गरीयशी धरती पर होता, अभाव का नर्तन।
देवों की क्रीड़ा का आँगन, दैत्यों के कृत्यों का साधन।
मंत्रों-गुंजित, अन्तरिक्ष में, फैला कल-युग का कोलाहाल;
श्वास-श्वास अवरुद्ध घुटन से, माँग रही मानवता सम्बल।
आह-कराह विवशताओं से, डसी हुई जीवन की तानें।
चेहरों पर उदासियाँ उभरीं, राहें भूल गयीं मुस्कानें।
एक अनिश्चित भाग-दौड़ के बीच फँसा मानव का जीवन;
अपना खोया सुख तलाशते भरे-भरे दृग हैं, सूनापन।
चहल-पहल की चकाचौंध में हम अपनी क्षमतायें भूले।
उसी डाल को काट रहे हैं जिस पर डाल रहे हैं झूले।
युद्धों के बादल ऋषियांे की कुटियों पर गड़गड़ा रहे हैं;
अस्ति दान की युग वेला में, युग दधीचि थरथरा रहे हैं।
कल्पवृक्ष का देश, क्षुधा की महाज्वाल में धधक रहा है।
कामधेनु के घर में कान्हा दुग्ध-बूँद को सिसक रहा है।
तमसा-तट से चीत्कार का कोई छन्द नहीं जगता है;
शान्ति-वधिक की निर्ममता को कोई शाप नहीं लगता है।
यज्ञ कुण्ड जागो, आहुति लो, चरम पतन की, महानाश की।
मंगल मधु वर्षों पर्जन्यो, धारायें बरसो प्रकाश की।
सम्बल-हीन आस्थाओं को अपने गौरव की ममता दो;
अमृत-घट साधे, संस्कृति को, क्रान्ति जगाने की क्षमता दो।
विश्वासों को अभय दान दो, प्राणों में जी उठें ऋचायें।
आता सतयुग लौट न जाये, लेकर चन्दन की समिधायें।
युग का विश्वामित्र कह रहा, राम उठो सन्ताप मिटाओ।
युगपिनाक तोड़ना ठहरकर पहले शिव का चाप चढ़ाओ।