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यथार्थ नहीं / सुरेश सलिल
Kavita Kosh से
मैंने फोड़े को छुआ
तो भीतर तक एक टीस कौन्ध गई
मैंने पत्ती को छुआ
तो भीतर तक एक सरसराहट दौड़ गई
मैंने सपने को छुआ
तो भीतर तक एक असम्भव कलाकृति रँग गई
फोड़े की जगह अब सिर्फ़ एक निशान बचा रह गया है
पत्ती पीली पड़ कर झड़ चुकी है
सपना नींद के साथ ही टूट गया
तो क्या छुई गई चीज़ें भी यथार्थ नहीं होतीं ?