यथार्थ / उमा अर्पिता
तुम कहते रहे
बखान करते रहे
अपने सुनहरे अतीत का…
तुम्हारे पास रहने को एक
बड़ी हवेली थी,
जिसके ओर-छोर को नापना
तुम्हें मुश्किल लगता था…
तुम्हारे पास न जाने कितने ही
नौकर थे/घोड़ा-गाड़ियाँ थीं/पहनने को
बेहिसाब कपड़े थे!
कभी-कभी
खेलते वक्त ही तुम्हारे पैरों को
कठोर जमीन का अहसास होता था…
तुम्हारे बोलने से पहले
पूरी हो जाती थी तुम्हारी हर इच्छा
और खड़ा हो जाता था तूफान
तुम्हारे एक आँसू पर…
तुम जब भी यह सब बखान करते हो
मेरे पिता, तो जानते हो,
उसे सुनकर
कोई और तो क्या
माँ भी आँख के कोनों से
मुस्कराती है!
तुम उसे रहने को
ढंग का एक अदद
मकान भी नहीं दे पाए,
जिसमें वो पैर फैलाकर सो सकती!
ओर-छोर की तो जाने दो
वह तो दोनों हाथ फैलाकर
घूम जाए अगर
तो छू ले घर के हर कोने को…
नौकरों के नाम पर
नौकर भी वही है और मालकिन (?) भी वही
उसकी आँखों में भी एक
प्यास उभरती है--
दूसरी औरतों के शरीर पर
गहने देख कर--
और मुसीबत में बेच दिए गए
अपने जेवरों को याद कर…
ऐसे में वो कहीं भी गलत
नहीं होती--
मन मारकर भी
चाहत की प्यास नहीं बुझती!
कड़ी धूप में पैदल ही
जब वो तुम्हारा खाना लेकर
मील भर दूर जाती थी, तो
मन ही मन तुम्हारी गाड़ियों पर
हँसती थी--
आखिर क्या करे वो
तुम्हारे उस सुनहरे अतीत का
जिसकी एक सुनहरी किरण तक
उसे छू नहीं गई!
उस खानदान की बहू होने का
गर्व क्या करे वो
जिसकी तड़क-भड़क उसने देखी ही नहीं!
तुम कहते रहे
और वो सुना-अनसुना करती रही,
मुस्कराती रही
व्यंग्य भरी हँसी लिए
आँखों की कोरों में…
मगर तुमने तब भी नहीं समझा
नहीं उतरे तुम यथार्थ की जमीन पर
तुम बखानते रहे
गुणगान अपना/अपने अतीत का!
अब माँ के साथ-साथ
मुस्कराने लगे थे बच्चे भी/व्यंग्य से
अक्सर--
खीझ पड़ते बच्चों पर बौखला उठते तुम
क्योंकि तुम
सच सुनने का साहस खो बैठे थे--
बच्चे अपनी जरूरत के लिए
तरसते/रोते
देखते दूसरे बच्चों को
ललचाई नजरों से
और सिमट जाते अपने आपमें
हीन भावना की
चादर ओढ़कर!
तब तुम--
समझते हुए भी न समझने का
नाटक करते,
मगर तब भी
बखानते अपना अतीत
और खोल देते
हिदायतों का पुलिंदा--
उन बच्चों की छटपटाहट
मैं जानती हूँ
क्योंकि शामिल थी मैं भी उनमें
हाथ से छूटते समय
और असमय बुढ़ाती इच्छाओं को
कभी नहीं सुहाया
उस अतीत का बखान और भाषण!
मन चिल्लाकर पूछना चाहता था--
अपने वर्तमान और भविष्य के बारे में
वर्तमान -- जो धुँधला था
और भविष्य -- केवल गहन अँधकार
भरा था!
मगर, मेरे पिता
तुम, तब भी न जाने
किस दुनिया में थे--
आज हम तो
संघर्ष करते-करते
अपनी-अपनी राह लग लिए
लेकिन
तुम आज भी वहीं हो
भूले नहीं हो आज भी अपने अतीत को…
मरे हुए बंदर के बच्चे की भाँति
चिपटाए हुए अतीत को अपने से--
तुम कभी जान नहीं पाओगे
कि तुमने कब और क्या खो दिया!