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यदि चाहने से कुछ भी होता / सुनीता जैन
Kavita Kosh से
यदि चाहने से
कुछ भी होता
सोचो, तुम्हारे लिए
मैंने क्या-क्या
चुना होता-
एक शिखर
धवल, मन्दिर का
सुवर्ण कलश से
जड़ा
एक वृक्ष
मंदार, विशाल
धरती तक फूलों से
लदा
एक द्वार
स्वागत में,
थाली-भर ले दीप
खड़ा
यदि चाहने से
कुछ भी होता,
यह पूरा
भूगोल
हमारे बीच
नहीं होता
अभिव्यक्तियों का वर्ष,
कुल मास-
दो-मास में ढल गया
नहीं होता
मेरे भीतर उमड़ता, हरहराता
हर शब्द,
नावक-तीर-सा चुभा
नहीं होता
यदि चाहने से
कुछ भी होता
तो यही होता
कि किसी रास्ते पर
‘रास्ता बन्द है’ का बोर्ड
लगा होता
डायरी में
टेलीफोन का कोई नम्बर
स्याही से
पुता होता।
सजाई या छुपाकर रखी तस्वीर का
छोटे-से-छोटा टुकड़ा, फिर
और भी छोटा
फटा होता