यद्यपि अपनी चेतनता के बन्द कपाट / राजेन्द्र गौतम
यद्यपि अपनी चेतनता के बंद कपाट किए हूँ
पलकों में वह साँझ शिशिर की फिर भी घिर-घिर आती।
पास अँगीठी के बतियाती बैठी रहती थीं रातें
दीवारों पर काँपा करती लपटों की परछाई
मन्द आँच पर हाथ सेंकते राख हुई सब बातें
यादों के धब्बों-सी बिखरी शेष रही कुछ स्याही
आँधी पानी तूफानों ने लेख मिटा डाले वे
जिन की गन्ध कहीं से उड़ कर अब भी मुझ तक आती।
बजती थी कुछ दूर बाँसुरी चीड़ों के घन वन में
जिसकी अनुगूँजें उठतीं थीं कुहराई घाटी में
सीमान्तों की चुप्पी अंकित जिसके मधुर क्वणन में
मोती ढरकें रात-रात भर दूबों की पाटी में
पर किस शीशमहल में बन्दी अब वे सब झँकृतियाँ
जिन की गूँज कहीं से मेरे कानों में भर जाती।
दरवाज़ों से या खिड़की से घुसने को व्याकुल-सी
दूरागत उस वृद्ध हवा की थकी-थकी आलापें
शेफ़ाली से सुमन न झरते ठिठकी वह आकुल-सी
गलियारे में नहीं महकतीं मौसम की पगचापें
सूखी वे रंगीन पँखुरियाँ पड़ी धूल में होंगी
उनकी छुवन अकेलेपन में अब क्यों सिहराती।