यन्त्रणाक क्षणमे / उपेन्द्र दोषी
हमर परबाक गेल्हकें झपटि लेलकैक बाज,
हम आग्नेय नेत्रसँ निहारैत रहब शुन्य, निर्निमेष,
कोंढ़क करियौतीमे फाटि जाएत एना भ’ क’ दराड़ि
आ तुबतैक नहि आर्द्राक बाकुट भरि मेघ
मित्र ! हमरा विश्वास नहि छल।
लोकक हाथक घनगर, शीतल छाहरि
अनायास भ’ जएतैक छुछुन्न
चुटकी भरि रौदक नहि क’ सकतैक प्रतिकार
हमर माथ परक पसरल आकाश
अण्डीक कोड़ो आ बघण्डीक सोंगर पर ओंगठाओल अछि
मित्र ! हमरा विश्वास नहि छल।
हड़ीमे ठोकल जीवित अपराधी प्रेतात्मा सभ
फेर भ’ गेल स्वच्छन्द आ निरावरण
हमर रचना-प्रक्रियाक काल-पुरूष
कोनमे दबकल, अपराध-बोध-ग्रस्त
प्रेतात्माक अनुभव क’
एतेक विचलित आ तीत भ’ जाएत हमरा प्रतिएँ
मित्र ! हमरा विश्वास नहि छल।
यन्त्रणाक एहि अप्रत्याशित क्षणांशमे
हमर मोन नीम देल करैल भ’ जाएत
आ अपरिचित अभिव्यक्ति तेलाएल रूपकें
घोंटत नहि थुकरि देत ?
सम्पूर्ण धरतीसँ फराक कलियुगी शिवक निस्तेज त्रिशूल पर
टँगा जाएब-हमर अभीष्ट भ’ जाएत
मित्र ! हमरा विश्वास नहि छल।
काछुक बाह्य अवयव-अपनत्वक सभटा निमित्त
अप्रत्याशित रूपें नुका जाएत