यमुना की श्यामल लहरों में / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
धुली हुई चन्द्रिका
निशा में नव यौवन भरती थी,
यमुना की श्यामल लहरों में
नित विहार करती थी।
जीवन का सान्निध्य
प्राप्त कर जीवन मधुर बना था,
सुखद भावनाओं का
भीतर-बाहर जाल घना था।
सहज समुन्नत
दीप्तिमान निर्बाध मिला यौवन हो,
शान्त और एकान्त
मनोहर वासन्ती उपवन हो,
तो समझो जीवन्त-
ज़िन्दगी होकर सहज खिली है
सौ जन्मों का पुण्य
और हरिकृपा विशेष मिली है।
यही मधुर आनन्द
हृदय में मेरे जाग उठा था
पाप-शाप सब भूल
अलौकिक भर अनुराग उठा था,
पवन नित्य लहरों पर
आकर मुझको छू जाता था,
शीतल शान्त अंक में
कोई मधुर गीत गाता था।
यमुना तट, वंशीवट,
नटखट, नागर, कृष्णा कन्हैया,
नित्य स्वप्न में
रास रचाता मुरली मधुर बजैया,
मैंने देखी अखिल लोक-
पावन छवि मन-मोहन की,
गोचारण, वंशीवादन,
पटहरण, नागनाथन की।
जीवन का स्वर मधुर
न वैसा देख कभी फिर पायी,
वैसी अनुपम छवि न
लोक में कभी दृष्टि में आयी।
उर मन्दिर में वही छवि-छटा
अब तक मुस्काती है,
परम चेतना की वाणी-सी
धड़कन में गाती है।
छूकर श्याम-चरण मैं
श्यामा, श्यामा बन पायी हूँ,
मंगलमयी लोक सुखदात्री
होकर हरषायी हूँ।
पवन चंचलित मधुर-
तरंगों से मैं जग जाती हूँ,
सुनकर आहट वंशीवट की
झट तट पर आती हूँ।
चंचल नयनों से निहारती
हूँ मैं कण-कण तृण-तृण,
किन्तु न मिलते श्याम
नयन कर उठते प्रेम-प्रवर्षण।
आती नित्य नयी लहरें-
सुकुमार तटों पर सजकर,
राधा माधव-चरित सुनाती
मधुर बाँसुरी के स्वर।
मलयानिल हरि पाद पद्म का
पद्मराग लाता है,
श्रद्धा से साभार
प्रणत मन मेरा हो जाता है।
वैसे तो इतिहास
अनेक मैंने पढ़े-सुने हैं
लवणासुर के क्रूर कर्म
मन-पट में अभी बुने हैं।
धर्म ध्वंसिका शक्ति
कंश की भूल नहीं पायी हूँ,
बँधे देख वसुदेव-देवकी
बहुत छटपटायी हूँ,
किन्तु काल के निर्णय को
कब कौन टाल पाया है,
हुआ यहाँ है वही कि-
उसको जो कुछ भी भाया है।
रही देखती मौन विवश
कुछ भी तो कर न सकी मैं
जीवन को शृंगार सुधा से
तिलभर भर न सकी मैं।
जगी क्रूर औरंजेब की
रक्तप्यास सोयी थी,
निर्दोषों के कटे शीश
तब धरा बहुत रोयी थी,
खण्ड-खण्ड हो गयी मनुजता
पिये गरल के प्याले,
हाय! मुगल शासन के मैंने
देखे वे दिन काले।
दुख व्यथा से भरी
हुई अति उन्नत कथा अमित हूँ,
रही देखती युग-युग से
मैं भलि-भाँति परिचित हूँ
यद्यिप हैं निर्मोह नहीं सब
जीवन की धाराएँ
किन्तु ठहर कर करें न कोई
सुख-दुख की चर्चाएँ।
चलते-चलते ही जीवन को
गौरव-बोध करातीं,
निज अतीत से वर्तमान तक
दिशा-दशा समझाती।
साथ-साथ मैं तैंर
लहर का दर्शन पा जाती हूँ।
क्षणभर को हो मुक्त
राग से परम भाव पाती हूँ।
जिस दिन मुझे पकड़
मछुआरे युमना के तट लाये,
होकर विलग श्याम-जल से
थे प्राण बहुत अकुलाये।
और परम हर्षित
धीवर दल घेरे मुझे खड़ा था,
देख हमारी उदर वृद्धि को
विस्मित चकित बड़ा था।
आखिर चोर उदर को मेरे
षंकाएँ सब तोड़ीं,
दो शिशुओं को देख उदर में
खुशी अपरिमित जोड़ी,
गौरव बोध हुआ मुझको भी
भूल गयी निज पीड़ा
धन्य धन्य कह उठे सभी थे
धन्य राम की क्रीड़ा।
दो शिशुओं की जननी
बनकर मैं गम्भीर हुई थी,
कीर्तिशेष होकर पर उस दिन
बहुत अधीर हुई थी।
पुत्र मत्स्य को चेदिराज ने
अंगीकार किया था,
सुता मत्स्यगंधा को
धीवर ने स्वीकार किया था।
दैन्यग्रस्त धीवर ने
पाला कन्या को हर्षित हो,
जाग उठा अपनत्व स्नेह-
अंचल में उत्कर्षित हो,
यमुनातट पर खेल-खेल कर
बड़ी हुई वह श्यामा,
रूप रत्न श्री श्यामा तन्वी
नव यौवनाभिरामा।
तट पर आती कभी
खेलती लहरों में से हँस-हँसकर,
फूलों के शृंगार सजाती
कभी दीप्त अंगों पर।
माता-पिता देख
कन्या को फूले नहीं समाते,
अगले ही क्षण किन्तु
ब्याह की चिन्ता से घिर जाते।
करते भी क्या अडिग-
अतिथि आ पहुँचा चौथापन था,
कर्म, शक्ति, उल्लास
उमंगां का हो पतन था।
नौकायन ही एकमात्र बस
जीवन का साधन था,
इसके सिवा न उनका कुछ भी
चिन्तन आराधन था।
घोर अभावों में भी
हरपल वह प्रसन्न रहती थी,
व्यथा-कथा अन्तर्मन की
पर नहीं कभी कहती थी,
आये-गये मनचलों के
वेधक उपहास सहन कर,
नौकायन करती थी
भीतर ही भीतर घुट-घुटकर।
प्रखर समय की धार
पार करती ही वह जाती थी,
पुत्री होकर पुत्र धर्म को,
भी न भूल पाती थी।
अधरों पर मुस्कान
क्रोध की ज्वाला अन्तस में थी,
संस्कारों की धार समुज्ज्वल
बहती नस-नस में थी।
देख-देख यह दशा
नयन मेरे भी भर जाते थे,
किन्तु क्रूर है भाग्य चक्र,
कह खुद को समझाते थे।
हाय मजूरी! तेरे घर में,
सुन्दरता क्यों आयी?
आयी तो वरदान
किन्तु अभिषाप बनी दुखदायी।
हाय विधाता!
तू ने कन्यारत्न रचा ही क्योंकर?
जननी होकर भी
भोग्या से अधिक न कुछ वसुधा पर।
जिसके उर में ममता के
नित नव पादप उगते हैं,
उसके ही शुचिश्याम अंक मे
व्यंग्य-बाण लगते हैं।
डूबा हुआ वासना तम में
नर कितना अन्धा है?
हाय! घिरी तम से
शुचिश्यामल ज्योति मत्स्यगंधा है।
वह पवित्रता मर्यादा के
रक्षण में तत्पर है,
बुद्धिमती, छविमती, गुणवती
प्रखर-प्रवर भास्वर है।
मुझे हुआ दुख और
रूप-लावण्य बना विष प्याला,
मुग्ध हो गया वृद्ध
पराशर का मन हो मतवाला।
परम तत्व आराधक
साधक सिद्ध ब्रह्मत्व ज्ञानी थे,
धर्म-धुरीण, प्रवीण, तपस्वी
तेजस्वी, ध्यानी थे।
यौवन के नवरश्मि जाल में
भटक गया था ऋषि मन,
लूट ले गया उपेक्षिता का
जीवन रत्न परम धन।
कहा मत्स्यगंधा ने-
ऋषिवर! क्यों अनर्थ करते हो?
क्षण के लिए अखण्ड
तपस्या व्यर्थ-व्यर्थ करते हो,
किन्तु विषम-दशकन्ध
सुमति-सीता को हर लेता है,
कामप्रभंजन ज्ञान-ध्यान का
दीप बुझा देता है।
हो जाती है मौन मनुजता
पशुता जग जाती है,
रोती है साधना, वासना-
जी भर मुस्काती है।
अघटित हो जाने पर ही
परिणाम व्यास होता है,
अन्धकार होता है
या फिर नव प्रकाश होता है।
बिना वरण के ही ऋषि का
आचरण चरण कुत्सित था
किन्तु हुई तेज अमित प्रकृति
तप तेज अमित संचित था।
और लोकहित जान
मौन मैं रही अश्रु निज पीकर
दीप्तिमति छवि पर देखे थे
प्रथम बार श्रम-सीकर।
मनोमान सर्जक का भी
कुछ तो आसक्ति ग्रसित है,
मनुजा! तेरा भाग्य
भोग की धारा में विसलित है।
मिले दंश सन्त्रास कठिन
पग-पग पर तुझे निष्न्तर,
रूप-भुप ने किये विनर्मित
संकट-कंटक जी भर।
तेरे दुख का कारण
यौवन का धन नित्य बना है,
इसीलिए संकट का
सिर सघन वितान तना है
बन्द हुआ अध्याय प्रथम
ऋषिवर की गुरुछाया में,
जागे सोनल स्वप्न
मनोहर गन्धवती काया में।
नृपति सान्तनु यमुना तट पर
हेतु-शिकार पधारे,
मृग नयनी की नयन-झील में
डूब गये बेचारे।
वृद्ध देह में यौवन की
धाराएँ डोल उठी थीं,
रीते हुए शुष्क घट में
फिर अमरत घोल उठी थीं।
एक बार फिर विवश
हमारे नयन सनीर हुए थे,
असहनीय आशंकाओं से
प्राण अधीर हंए थे।
बार-बार यह कौन
पाप का भोग उभर आता है?
विधना! तेरा लेख मूढ़मन
समझ नहीं पाता है।
धधक उठा उर-प्रान्त
क्रान्ति का ज्वार जग पड़ा सस्वर,
किन्तु नियति का चक्र
देखती रही मौन रो-रोकर।
आखिर वह दिन आया
जब कोमला सुता सुकुमारी,
ब्याही गयी वृद्ध राजा से
क्रूर भाग्य की मारी।
स्नेह, शील, सद्भाव
सभी का था हो चुका विसर्जन,
पैशाचिक वासना कर उठी
भीषण नंगा नर्तन।
स्वप्न रह गये स्वप्न-
सुनहरे, मूर्त नहीं हो पाये,
यौवन के ध्वज मरुस्थली में
विवश गये फहराये।
मधुर कामनाओं की कुटिया
राख हुई क्षणभर में,
भाव हंस छिप गये
हृदय के तमःस्नात गह्नर में।
जीवन का श्रृंगार
हाय! काँटों ने ही कर डाला,
यौवन-कलश मनोज्ञ
विषैली मदिरा से भर डाला।
अंगारे झर उठे
कामना-कुसुमों की डाली पर,
घिरी अमावस घोर
हाय! नव यौवन की लाली पर।
जीवन लतिका हाय!
कठिन पत्थर की भेंट चढ़ा दी,
कुल रक्षा के लिए सुता ने
जीवन-ज्याति जला दी।
बनी राजमाता तो
लेकिन मन का राज्य मिटाकर,
जीवन की नवज्योति सौंप दी
कठिन अंधड़ों के कर।
जीवन के इस कामकुन्ज में
शाप-पिशाच बचे हैं,
दीवारों पर मौन-
कराहों के आख्यान खचे हैं।
भाग्यविधाता!
भाग्य मत्स्यगंधा का क्रूर हुआ है,
अनचाहा हो रहा सकल-
मनचाहा दूर हुआ है।
री दुष्टे आसक्ति!
तुझे धिक्कार रहा मन मेरा
क्योंकर मेरी योजना गंधा
क्यों तू ने फिर घेरा?
मैं चाहूँ तो तुझे पकड़
धारा के मध्य बहा दूँ,
अम्बुधि की वड़वाग्नि
प्रखर में झोंकूँ और जला दूँ।
दो शिशुओं का भार
दृगों को देकर आँसू खारे,
शान्त हुए चिर एक दिवस
शान्तनु सुरलोक सिधारे।
हाय! मत्स्यगंधा की है
कितनी दुख भरी कहानी?
कहते सुनते नहीं
सूख पाता आँखों का पानी,
कहूँ कहाँ तक
व्यथा-कथा विश्राम नहीं लेती है,
नई-नई पीड़ाओं से
प्राणों को भर देती है।
हाय! रूप की ज्वाला में
यह लोक जला जाता है,
बार-बार जलता है फिर भी
समझ नहीं पाता है,
पति का मरण हुआ पर
पुत्रों ने कुछ आस बँधायी,
किन्तु काल के प्रखर वेग को
कोई दया न आयी,
एक पुत्र ब्याहा-अन-ब्याहा
एक गया सुरपुर को,
भग्न कर गया बज्रपात
असमय पुत्री के उर को।
दुःखाम्बुधि में यक्ष प्रश्न-सा
खड़ा हस्तिनापुर है,
नृप के बिना राज्य
होता जाता अनाथ का पुर है।
राज्य और कुल
दोनों की चिन्ता ने डेरे डाले,
मन-मन्दिर से नष्ट हो चले
आशा के उजयाले,
योजन गंधा को अखण्ड
दुख-दाह अनन्त मिलें हैं,
नहीं शान्ति सुख जलज
एक क्षण को भी कभी खिलें हैं।
मैं माता हूँ
भली भाँति से दुःख थाह सकती हूँ,
किन्तु चाहकर भी न दुःख को
रंच बाँट सकती हूँ,
गंगासुत को बुला
मत्स्यगंधा ने किया निवेदन,
आओ पुत्र! आज
व्याकुल हैं रिक्त राजसिंहासन
किन्तु भीष्म प्रणबद्ध
निवेदन कर स्वीकार न पाये,
तोड़ सुदृढ़ संकल्प
कभी वे पद की ओर न आये,
और राज्य कुल संरक्षण में
सन्नद्ध रहे जीवन भर,
जगत पितामह बने देवव्रत
ब्रह्यचर्य धारण कर।
धर्म सिन्धु की ओर
धार जीवन की जो बढ़ती है,
प्रखर कंटकों का मर्दन कर
चरैवेति पढ़ती है।
जिसके मन में
परहित का ही मधुरदीप जलता है,
परम लक्ष्य प्रतिबिम्ब
हृदय में उसके ही ढलता है।
सत्यवती के मन में
कुण्ठाओं को ढलते देखा,
चिन्ताओं के अर्चिजाल में
तन-मन जलते देखा,
तिल तिलकर हो गयी नष्ट
जो देह यष्टि अनुपम थी,
चिन्ताएँ सब सिमट
चेतना में आयीं निर्भ्रम थीं।
धनीभूत हो गयी चेतना
छोड़ चली यह काया
प्राण मिल गये महाप्राण से
मौन हो गयी माया।
शेष कीर्ति सम्पन्न रह गया
धरती माँ का अंचल
सत्यवती है सत्यव्रती-सी
धर्म-धैर्य का सम्बल।
लहर-लहर यमुना की पावन
यश-विशेष गायेगी,
सत्यवती की व्यथा-कथा
कहकर नित समझायेगी।
पृथ्वी की माधुरी
स्वयं पी गयी गरल की धारा
रहा देखता लोक निठुर
दे सका न रंच सहारा।
द्रवित हो उठा हृदय हमारा,
नयन हो गये निर्झर।
अन्तस में छवि छटा बसी है
सत्यवती की अक्षर।
कीर्ति-कौमुदी युग-युग तक
धरती तक मुस्कायेगी,
गर्व करेगी भारतीय संस्कृति
सम्बल पायेगी
मैं तो नित्य नवीन
देह धरकर तट पर आती हूँ,
क्षणभर को अतीत की यादों में
फिर खो जाती हूँ।
सोच-सोच इतिहास
हृदय मेरा भर-भर आता है,
किन्तु विलग हो जीवन से
जीवन न ठहर पाता है।