यश गान उछालें / यतींद्रनाथ राही
मन करता है
कुछ बतियाएँ
कुछ हँस लें
कुछ गा लें
अपनी ही छाया के भ्रम में
तपन जगत की भूले
झूल रहे हैं निराधार हम
किन सपनों के झूले
सूखी नदी
तरसती मछरी
लिखी रेत पर लहरें
मेघ राज के अश्वमेध के
ध्वज अम्बर में फहरें
बिजुरी गयी बिखेर बताशे
अँजुरी भरें उठा लें।
राजा नंगा है
कहते हो
तो मत अब यह कहना
आँख मूँद कर
कान बन्द कर
तुमको बस चुप रहना
दृश्यमान यह जग
माया है
उलझ गये तो डूबे
कहीं धरे रह जायं न सारे
वे ऊँचे मंसूबे
बहती नदी
हाथ ही धोलें
धँसकर डूब नहालें।
केश खोलकर खड़ी सभा में
एक नहीं, सौ-सौ पांचाली
धर्मराज के दुर्योधन के
सब तूणीर हो चुके खाली
कुरुक्षेत्र का अन्त सुनिश्चित
कल इतिहास लिखेगा
परिवर्तन की महागन्ध का
सुरभित सुमन खिलेगा
महाकल्प है
गर्वित हो लें
कुछ यशगान उछालें
24.8.2017