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यस, सर! / तरुण
Kavita Kosh से
ज्ञान के चमकते मोतियों,
घोंघे-सीपियों का यह तरंगाकुल समन्दर
गहरे आन्तरिक उल्लास में भर कर,
अपने बॉस-
खोखले, जड़ाऊ आसमान के चरणों में
लहरता-पसरता-हहरता,
धीर-गम्भीर संयत स्वर में
अदब के साथ
मुंडी हिला-हिला कर
कह रहा है-
यस, सर! यस, सर...
1978