यहाँ, इस तरफ / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
बड़ी भारी बहस छिड़ी हुई है उधर
-‘सही है यह’ या कि ‘वह सही है’।
थर्मामीटर का पारा तेज़ी से उठता-गिरता है।
लेकिन ताल के जानकार लोग अच्छी तरह जानते हैं
कब कितने ताल में बज रहा होता है ‘श्रीमृदंग’
‘और ज़ोर से’... ‘और ज़ोर से’ घोर नाद उठता है: नारद...नारद!
इधर रास्ते का पानी तिरता-रिसता
पाताल चला जा रहा है।
बहते चले जा रहे हैं, हिचकोले खाते डगमगाते
असमंजस में फँसे लेकिन भँवर-चक्र की ओर
कागज़ के नाव। हा हतोस्मि! दायें या बायें!
छितर-बितर कर रहे कीड़े-मकोड़ों की तरह
ज्योतिषी, पुरोहित और पादरी
और फिर सहगान समाप्त।
‘‘मेरी इस कहानी का नायक कुमारटोली में
रहता था। वह ढेर ससारी प्रतिमाएँ बनाया करता था,
लेकिन लोग इन्हें जल में विसर्जित कर
आते थे। बारहों महीने यही ढर्रा चलता रहा।’’
एक दिन उसने ‘धत्तेरे की’ कहा और फतुही डाल
पासवाली गली में निकल गया जहाँ कोई
सुशीला-फुसीला नाम की लड़की खड़ी रहती थी।
उसने उसे अच्छी तरह ठोक-बजाकर देखा,
अरे यह ईश्वर की सृष्टि तो
बड़ी ही खूबसूरत है!
वह वापस लौट आया।
और उसने एक रंगीन पुतला खड़ाकिया।
बड़ी ही प्यारी-सी चीज़ बनी थी। लेकिन इसके बाद,
जान-बूझकर घर में ही पड़ा रहा।
पता है, फिर क्या हुआ?
हरे राम...राम राम!
आखि़र बात वही हुई!
अरे सब के सब बैठ जाओ!
कुछ समझे?
इन्हीं ग़लतियों की आदी आँखों में पड़ गया मोतियाबिन्द-
क्योंकि समस्याएँ, उसके मुकाबले बहुत...बहुत बड़ी थीं;
पृथ्वी के मानचित्र में कुमारटोली का नाम तक नहीं।
दरअसल, जिस पात्र को लेकर इतना हंगामा हुआ
इतनी चिल्ल पों मची
-वह सारी बात समझ चुका था,
और अब तो वह बाज़ार भी जाता है
हाथ में थैली थामे।
इस धरती को बेहतर ढंग से
सजाने-सँवारने को है वह पूरी तरह तैयार,
सुबह होने वाली है। तभी तो
यह अन्धकार पीड़ा में इतना तड़प रहा है।