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यहाँ-वहाँ की बातें आज उठ रही हैं / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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यहाँ-वहाँ की बातें आज उठ रही हैं मन में,
वर्षा के शेष में शरत के मेघ जैसे उड़ते हैं पवन में।
कार्य बन्धन से मुक्त मन उड़ता फिरता है शून्य में;
कभी आँकता है रूपहले चित्र, कभी खींचता है सुवर्ण रेखाएँ।
विचित्र मूर्तियाँ रचता वह दिगन्त के कोने में,
रेखाएँ बदलता है बार-बार मानो मनमने में।
वाष्प का है शिल्प कार्य मानो आनन्द की अवहेलना-
कहीं भी दायित्व नहीं, इसी से उसका खेल अर्थ शून्य हैं
जागने का दायित्व है, इसी से काम किया करता है।
सोने का दायित्व नहीं, ऊलजल्त स्वप्न गढ़ा करता है।
मन की प्रकृति ही है स्वप्न की, दबी रहती वह कार्य के शासन में,
दौड़कर बैठ नहीं पाता मन स्वराज के आसन पर।
पाते ही छुटकारा वह कल्पना में कर लेता भीड़,
मानो निज स्वप्नों से रचता है उड़ाकू पक्षी का नीड़।
इसी से मिलता है प्रमाण अपने में-
स्वप्न यह पागलपन ही है विश्व का आदि उपादान।
उसे दमन में रखता है,
स्थायी कर रखता है सृष्टि की प्रणाली
कर्तव्य प्रचण्ड बलशाली।
शिल्प के नैपुण्य इस उद्दाम को शृंखखिल करना
अदृश्य को पकड़ना है।