भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यहाँ-वहाँ कुछ कहीं न मेरा / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
यहाँ-वहाँ कुछ कहीं न मेरा, मेरे केवल तुम ही।
मन-इन्द्रिय, शरीर, धन, जीवन मेरे केवल तुम ही॥
राग अनन्य, शुद्ध ममतास्पद मेरे केवल तुम ही।
भोग-मोक्ष, वैराग्य-भाग्य सब मेरे केवल तुम ही॥
तुम्हें छोडक़र कुछ भी मेरा कहीं न कोई, प्यारे!
अर्पण करूँ जिसे मैं तुमको, ऐसा क्या है, प्यारे!
खेल रहे तुम स्वयं आपमें खेल अनोखा, प्यारे!
रहो खेलते खुल इस निज निर्जन निकुजमें, प्यारे!