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यहाँ अभी भी कुछ बचा हुआ है-2 / तुषार धवल

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कोलतार की धूसर चपटी मृत देह पर शहर भर की बामियों से बिलबिला कर निकले दीमकों का व्यस्त लिप्त अकेंद्रित झुण्ड
औल बौल खौल रहा है
खोल रहा है हवा में दुर्गंध की परतों को
गैस छोड़ता अँतड़ियों में उबलती पेट्रोल की
आँखें मिचमिचाती हैं फेंफड़े पहाड़ चढ़ते हैं
सर्फ एक्सेल की होर्डिंग को देख कर कभी सफेद रही शर्ट पूछ उठती है
क्या ये ‘दाग अच्छे हैं’? क्या ये वाकई ज़रूरी थे?
ये दाग छाती पर, फेंफड़ों में, आकाश पर?
उस चमचमाते लुभाते झूठ के मुँह पर क्यों नहीं हैं दाग?
उसे किस रिन या टाइड से धोया जाता है सत्ता के गलियारे में?
एक बड़ी वाशिंग मशीन है कहीं किसी पिछ्वाड़े में रखी हुई जिसमें
समय के झूठ के महत्त्वाकांक्षा के हवस के सभी दाग धुल जाते हैं
लेकिन नहीं धुल पाती है उस आठ महीने की बच्ची की कूड़े से उगी ज़िंदगी
जिसने जनमते ही सिर्फ माँ को और भूख को पहचाना है
उसकी मुरझाई पंखुड़ी से पपड़ाये गालों का रंग नज़र नहीं आता
इस मृत कोलतारी देह पर
लिप्त दीमकों के व्यस्त झुण्ड में सब घुल मिल कर एक विन्यस्त दृश्य की तरह है
उसके सिरनुमा अंग पर सूखे उलझे पिलियाये रेशों को जॉन्सन बेबी शैम्पू नहीं चूमता
उसके वस्त्रहीन अंगों पर सवा सौ करोड़ कीटाणु पल रहे हैं
पर डिटॉल चुप है लाइफबॉय गुम
कंकाल सी उसकी काया पर एक बैलून सा फूला पेट
किसी फोटोग्राफर की ब्लैक एण्ड वाइट शो का माकूल मुफीद विषय बन उसकी लेंस को ज़रूर पुकार लेता है लेकिन उसकी उसी पुकार पर हॉर्लिक्स चुप है केलोग्स गुम
सब अपनी अपनी पंच लाइन में जड़े हैं ‘खुशियों की होम डिलेवरी’ करने में इस घात में कि
कब ‘कुछ मीठा हो जाये’
पर उस तक कोई नहीं आता किसी को फिक्र नहीं कि वह भी ‘तीन गुना तेजी से बढ़े’
उसके लिये इस समय में कुछ बना ही नहीं बनता ही नहीं
या वही नहीं बन पायी बन पाती किसी चीज़ के लिये लायक
उसे पता ही नहीं है और इसीलिये उसे चाहिये भी नहीं