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यहाँ एक कण भी सजल आशा का नहीं / तारा सिंह

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मनुज सोचता , हवा में जो झूल रहा स्वर्ग
जलद जाल में उलझ रहे कुंतल - सा
जीवन का ताप मिटाने कब उतरेगा,धरती पर
कब टूटेगी वहाँ के सुधा सागर की बाँध
कब सूखे नयन भींगेंगे ,कब होगी वेदना कम
यहाँ एक कण भी नहीं सजल आशा का
यहाँ न तो अरमानों को रोशनी मिलती
न ही इच्छाओं को मिलता , जीवन का रंग
झंझा प्रवाह से निकला यह जीवन , विक्षुब्ध
विकल , परमाणु का पुंज लेकर आया अपने संग
जो जीवन को सदैव भयभीत किये रहता
बनाने नहीं देता कोमल लतिकाओं का कुंज
कहता ज्वलनशील , मानव का अंतर कब
विस्फोट कर राख में बदल जायेगा , कब
साँसों की गति रुक जायेगी , कब हो जायेगी रुद्ध
कोई नहीं जानता , इसलिए अमरता के लोभवश
जिस शून्य को तुम कह रहे हो स्वर्ग ,वहाँ केवल
काल की निस्सीमता की साँस है,बाकी बातें व्यर्थ
नियति के हाथॉं यहाँ जीवन सभी छले गए
क्या राजा , क्या भिखारी , क्या साधु , क्या संत
कोलाहल भरे इस धरा का क्या है रहस्य
पहले भी मनुष्य साध चुका है इस कलायोग को
मगर क्या मिला,सभी अपने ही हृदय-जल में डूब गए
ज्यों दल - दल में फंस जाता मत्त गज

यहाँ गम के नीचे दबी जिंदगी , स्वप्नों के
शिखरों से उठकर , आकांक्षाओं के भुवनॉं पर
रंग़ – विरंगे उड़ते सूक्ष्म सुषमाओं की, आभा
के हरित पट से प्राण - सिंधु को सजाता
तर्क से तर्कों का रण छेड़कर , ज्ञान मरु में
भटक -भटककर वारि बिना दम तोड़ देता
पर किसी ने मौत की छाती से जीवन को निकाल
नहीं पाया, अपनी ही पुतली से प्राण बाँधे चले गए

ऐसे भी तुम्हारी आत्मा जब तुम्हारे हृदय का साथ
छोड़ देगी तब , मन की वेकली स्वयं चली जायेगी
अमरता से लगी आशा की , तुनुक स्वयं टूट जायेगी
इसलिए जीवन रहस्य को जानने की कल्पना त्यागो
यह नियति का काम है , नियति पर छोड़ो