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यहाँ था मेरा जो झोला नज़र नहीं आता / कैलाश झा ‘किंकर’
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यहाँ था मेरा जो झोला नज़र नहीं आता।
ग़ज़ल का मेरा पिटारा नज़र नहीं आता।
जहाँ पर बाढ़ से सारा समाज मुश्किल में
वहाँ पर अब भी तो नेता नज़र नहीं आता।
तमाम रात तो बादल भी झूमकर बरसे
कहीं निकलने का रस्ता नज़र नहीं आता।
गुनाहगार को कुदरत की मार पड़ती है
मगर सुधरने का ज़ज़्बा नज़र नहीं आता।
मुझे तो सब में तुम्हारी ही शक्ल दिखती है
कहीं भी ग़ैर का चेहरा नज़र नहीं आता।
किसी-किसी की तो अम्मा पुकारती रहती
जिगर का मेरा जो टुकड़ा नज़र नहीं आता।