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यहाँ पे बेगुनाह गर सच हमारा हो न पाएगा / सूरज राय 'सूरज'

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यहाँ पर बेगुनाह गर सच हमारा हो न पाएगा।
तो फिर तेरे शहर में भी गुज़ारा हो न पाएगा॥

मेरे भाई से मिलके दुश्मनों इतराओ न इतना
जो मेरा हो न पाया वह तुम्हारा हो न पाएगा॥

दुकाने-दिल से अब एहसास के बिन कुछ नहीं देंगे
हमें बर्दाश्त अब कुछ भी ख़सारा हो न पाएगा॥

जहाँ के मंच पर गा न सकूँ मंज़ूर है लेकिन
ये तय है चापलूसी से गरारा हो न पाएगा॥

मेरे ईमां यक़ीं ये रख कभी भी ये तेरा बन्दा
फ़ना हो जायेगा लेकिन बेचारा हो न पाएगा॥

उजालों की दुआ देके मुझे तू भी अगर बिछड़ा
सहर का फिर मेरी रोशन सितारा हो न पाएगा॥

अगर माँ-बाप के संग छूट जायेगा पुराना घर
नये घर का फिर हमसे ईंट-गारा हो न पाएगा॥

तुम्हारा क़द दिखाने को झुका हूँ मैं मगर है सच
सिमट जाए भले "सूरज" शरारा हो न पाएगा॥