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यहाँ सच बोलने से फ़ायदा क्या / रामप्रकाश 'बेखुद' लखनवी
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यहाँ सच बोलने से फ़ायदा क्या
कटा लें मुफ़्त मे अपना गला क्या
मैं तेरी ज़िन्दगी का इक वरक़ हूँ
समझ रक्खा है मुझको हाशिया क्या
बुझा ली प्यास जो अपनी किसी ने
समन्दर इसमें तेरा घट गया क्या
शिकम की भूख की ख़ातिर जहाँ में
ख़ताएँ आदमी ने की हैं क्या-क्या
अगर मकसद सुकूने-दिल है तो फ़िर
हरम क्या है क्या और मयकदा क्या
फ़कीरों की दुआओं में असर है
अमीरों की दुआ क्या बद्दुआ क्या
हमारा क़त्ल ही करना है तुमको
तो फ़िर खंजर उठाओ, सोचना क्या
मेरी साँसो मे ख़ुशबू घुल रही है
मेरे एहसास को तुमने छुआ क्या
वो मंज़र तुम जो पीछे छोड़ आए
उन्हे मुड़-मुड़ के ’बेख़ुद’ देखना क्या