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यहाँ से / मिथिलेश कुमार राय
Kavita Kosh से
सब की तरह
इन्हें भी फूलों को निहारना चाहिये
उसके साथ मुसकुराना चाहिये
चलते-चलते तनिक ठिठककर
कोयल की कूक सुनना चाहिये
और एक पल के लिये दुनिया भूलकर
उसी के सुर में सुर मिलाते हुए
कुहूक-कुहूक कर गाने लगना चाहिये
इन्हें भी हवा में रंग छिडकना चाहिये
वातावरण को रंगीन करना चाहिये
फाग गाना चाहिये
और नाचना चाहिये
लेकिन पता नहीं कि ये किस नगर के बाशिंदें हैं
और क्या खाकर बडे हुये हैं
कि खिले हुए फूल भी इनकी आंखों की चमक नहीं बढाते
कोयल कूकती रह जाती है
और अपनी ही आवाज की प्रतिध्वनि सुनकर सुन-सुनकर
थककर चुप हो जाती है
वसंत आकर
उदास लौट जाता है यहां से