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यहाँ हर इंसान से लिपटी हुई तन्हाइयां / आनंद कुमार द्विवेदी

मेरे जिस्मो जान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ,
हैं दिले-नादान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ |

टूटते इन्सान को ये तोड़ देतीं और भी,
प्यार के परवान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ |

एक खंजर की तरह अहसास में चुभती रहें,
मेरे गिरहेबान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ |

झनझनाकर टूटता हूँ कांच की मानिंद मैं,
मुस्कराती शान से, लिपटी हुई तन्हाईयाँ |

मुझमे इन तन्हाइयों में फर्क है बारीक सा,
मेरी हर पहचान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ |

आज कल ‘आनंद’ है, तन्हाइयों के देश में,
यहाँ हर इंसान से लिपटी हुई तन्हाईयाँ |