भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यहां पे मदद करने वाले बहुत हैं / सूरज राय 'सूरज'
Kavita Kosh से
यहाँ पर मदद करने वाले बहुत हैं।
बशर आठ-दस, बरछी भाले बहुत हैं॥
मुक़द्दर की तरह कभी वह न पिघला
ग़रीबी ने पत्थर उबाले बहुत हैं॥
थे कल जितने गहरे हैं वैसे ही अब भी
मिले हैं जो सदमें सम्हाले बहुत हैं॥
हर इक शख़्स बातों से वेक्यूम क्लीनर
मगर घर में मकड़ी के जाले बहुत हैं॥
ज़रूरत भला क्या ज़हर बेचने की
यहाँ पर तो मस्ज़िद-शिवाले बहुत हैं॥
न पूछो हुआ ख़ाक़ घर कैसे उसका
अभी उसके लहज़े में छाले बहुत हैं॥
न सन्दूको-अलमारी न दर ही कोई
अगरचे मेरे घर में ताले बहुत हैं॥
यहाँ बेटियों को समझते हैं "सूरज"
तभी इस शहर में उजाले बहुत हैं॥