भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यहि विधि जैबै भव पार / मेँहीँ जी
Kavita Kosh से
यहि विधि जैबै भव पार, मोर गुरु भेद दिये॥टेक॥
दृष्टि युगल कर लेबै सुखमनियाँ हो, देखबै अजब रंग रूप॥1॥
तममा जे फुटि-फुटि ऐतै पँच रँगवा हो, बिजली चमकि ऐतै तार॥2॥
सुरति जे चढ़ि-चढ़ि चन्द निहारतै हो, लखतै सुरज ब्रह्म रूप॥3॥
सुन्न धँसिये स्रुति शब्द समैतै हो, पहूँचि मिलिये जैतै सत्त॥4॥
सन्तन केर यह भेद छिपल छल, बाबा कयल परचार॥5॥
तोहर कृपा से बाबा आहो देवी साहब, ‘मेँहीँ’ जग फैली गेल भेद॥6॥