यहीं उड़ रहा था वो कोहसार में / ज़ेब गौरी
यहीं उड़ रहा था वो कोहसार<ref>पहाड़</ref> में ।
उसे ढूँढ़िए अब किसी ग़ार<ref>गुफ़ा</ref> में ।
वही एक गौहर<ref>मोती</ref> पड़ा रह गया
वही एक गौहर था बाज़ार में ।
उजाला गइइ शब की बारिश का है
अभी साया-ए-अब्र-ओ-अशजार<ref>पेड़ों और बादलों का साया</ref> में ।
मेरी दोनों आँखें खोली छोड़ दीं
ये कैसा चुना मुझको दीवार में ।
तो क्या तू भी गुम था मेरि ही तरह
कहीं अपने सरवस्ता असरार<ref>गुप्त राज</ref> में ।
पड़े होंगे औराक-ए-दिल<ref>दिल के पन्ने</ref> भी कहीं
इन्हीं ज़र्द पत्तों के अंबार<ref>ढेर</ref> में ।
अजब रंग चमका है उस फूल का
मगर जब खिला शाख़-ए-इज़हार<ref>अभिव्यक्ति की टहनी</ref> में ।
उठी एक मौज-ए-सराब<ref>मरीचिका की लहर</ref> और मुझे
बहा ले गई सब्ज़ अनवार<ref>हरा-भरा ढेर</ref> में ।
ग़ज़ल ने भरी थी उड़ान इक ज़रा
कि फिर गिर पड़ी कूचा-ए-यार<ref>यार की गली</ref> में ।