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यहीं एक प्यास थी, जो खो गई है / महेश अश्क

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यहीं एक प्यास थी, जो खो गई है
नदी यह सुन के पागल हो गई है

जो हरदम घर को घर रखती थी मुझमें
वो आँख अब शहर जैसी हो गई है

हवा गुज़री तो है जेहनों से लेकिन
जहाँ चाहा है आँधी बो गई है

दिया किस ताक़ में है, यह न सोचो
कहीं तो रोशनी कुछ खो गई है