भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यहीं कहीं है / राम सेंगर
Kavita Kosh से
कोर-कसर सबने निकाल ली
बचे रहे, इतना ही ख़ूब ।
अपरिचयों की तनी हुई, इस
मुई घुटन की परतें खोल ।
बिला गए दिन उबरें शायद
फाँसे पड़े कुएँ में डोल ।
निःश्रेयश की चाह न कोई
उगा रहे बँजर में दूब ।
हँसी, यँत्रणा की हमजोली
फूल और काँटे का सँग ।
यह क्या कम है, सीख लिया है
ऐसे में जीने का ढँग ।
खुली हवा में ले आए हैं
फफरून्दे हिस्सों की ऊब ।
यहीं कहीं था, यहीं कहीं है
आशा का नन्हा ख़रगोश ।
झाड़ी नहीं खा गई उसको
है इतना हमको भी होश ।
दुबक गया है, ढूँढ़ रहे हैं
मन की गहराई में डूब ।
बचे रहे, इतना ही ख़ूब ।