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यही आभास होता है शहर से आके गाँवों में / पवनेन्द्र पवन

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यही आभास होता है शहर से आके गाँवों में
मैं तपती धूप से जैसे चला आया हूँ छाँवों में

वो निकला चोर है जब भी हक़ीक़त खुल के आई है
रहा होता है सम्मानित जो व्यक्ति जनसभाओं में

वो जिसने आग भड़काई है नफ़रत की हर इक दिल में
है गाता फिर रहा पानी पे ग़ज़लें गाँवों-गाँवों में

मिले हैं लोग कुछ ऐसे भी हमको शहर में आकर
कहा करती थी दादी माँ असुर जिनको कथाओं में

उसी के पास है मानो वो अल्लाहदीन का दीपक
निकल ही जाता है बचकर जो सारी आपदाओं से